हिंदी में छायावाद
हिंदी के विकास के क्रम में छायावाद का विकास द्विवेदी जी के कविता के पश्चात हुआ।
अगर मोटे तौर पर देखे तो छायावादी काव्य की सीमा 1928 ई. से 1996 ई.तक मानी जा सकती है।
छाया वाद के संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कहा है , ” छायावाद शब्द का अर्थ दो अर्थो में लेना चाहिए – एक तो रहस्यवाद के अर्थ में जहां उसका संबंध काव्य वस्तु से होता है,
अर्थात जहां कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है।
छायावाद का दूसरा प्रयोग काव्यशैली विशेष के व्यापक अर्थ में है”।
छायावादी कवि प्रकृति को मानवीय रूप देकर उसके प्रति अनेक प्रकारों के भावों की अभिव्यक्ति करता है।
इसमें प्रायः सूक्ष्म एवम् अशरीरी सौंदर्य का चित्रण है।
इसके साथ – साथ इसमें अप्रस्तुत योजना,वैयक्तिक वेदना, कल्पना एवम् अहम भावना का आधिक्य भी पाया जाता है ।
छायावादी कविता व्यक्तिनिष्ठ,कल्पना प्रधान एवं सूक्ष्म है।